बिश्नोई समाज का इतिहास एक प्राचीन और अद्भुत कहानी है
- Bishnoi Samaj पश्चिमी थार रेगिस्तान और भारत के उत्तरी राज्यों में पाया जाने वाला एक समुदाय है, जो प्रकृति और पशुओं के प्रति समर्पित है। इस समाज की स्थापना 15वीं शताब्दी के अंत में गुरु जांभेश्वर जी ने की थी, जो बिश्नोई धर्म के प्रमुख संत माने जाते हैं। उन्होंने अपने समुदाय को 29 नियम दिए, जिनको अपनाने के कारण ही यह समुदाय ‘बिश्नोई’ कहलाता है (29 को स्थानीय भाषा में ‘बिस’ कहा जाता है)।
गुरु जांभेश्वर जी और Bishnoi Samaj की नीति
- Bishnoi Samaj: के गुरु जांभेश्वर जी ने अपने शिस्यो को आदेश दिया की । वे अपने जीवन में के साथ सामरस्य बनाए रखें। उन्होंने पद्य के माध्यम से विचार व्यक्त किए जिसमें उनका संदेश था “जीव दया पालनी, रूंख नहीं राखिये खेत” (अर्थात, जीव-दया और खेतों का संरक्षण करो, और पशुओं को हानि न पहुंचाओ)।
- इस समाज का प्रमुख लक्ष्य प्रकृति, वन्य जीव, और पेड़-पौधों की रक्षा करना है। बिश्नोई लोग अपने व्यवहार में भी इस आदर्श को पूरी तरह से जीवित रखते हैं। उन्होंने पेड़ों और जीव-जंतुओं की रक्षा के लिए अपने प्राण तक त्याग दिए हैं, जो उनकी प्रतिबद्धता को दर्शाता है।
प्रकृति की रक्षा में बलिदान: बिश्नोई समाज खेजड़ली कांड
- Bishnoi Samaj : खेजड़ली कांड बिश्नोई समाज की सबसे प्रमुख घटनाओं में से एक खेजड़ली कांड है, जो 1730 में राजस्थान के जोधपुर के पास खेजड़ली गाँव में घटित हुआ था। जब राजा अभय सिंह के सैनिकों ने पेड़ काटने के लिए आदेश दिया, तब बिश्नोई समाज की अमृता देवी और उनके 363 साथियों ने अपनी जान दे दी, लेकिन पेड़ नहीं काटने दिए। उन्होंने कहा था: “सिर सांतें रूख रहे तो भी सस्तो जान”, मतलब, अगर पेड़ों को बचाने के लिए अपनी जान देनी पड़ती है तो वह भी सस्ता है।
खेजड़ी का वृक्ष
खेजड़ी या शमी एक वृक्ष है जो थार के मरुस्थल एवं अन्य स्थानों में पाया जाता है। यह वहां के लोगों के लिए बहुत उपयोगी है। इसके अन्य नामों में घफ़ (संयुक्त अरब अमीरात), खेजड़ी, जांट जांटी, सांगरी (राजस्थान), छोंकरा (उत्तर प्रदेश), जंड (पंजाबी), कांडी (सिंध), वण्णि (तमिल), शमी, सुमरी (गुजराती) आते हैं। इसका व्यापारिक नाम कांडी है। यह वृक्ष विभिन्न देशों में पाया जाता है जहाँ इसके अलग अलग नाम हैं। अंग्रेजी में यह प्रोसोपिस सिनेरेरिया नाम से जाना जाता है। खेजड़ी का वृक्ष जेठ के महीने में भी हरा रहता है। ऐसी गर्मी में जब रेगिस्तान में जानवरों के लिए धूप से बचने का कोई सहारा नहीं होता तब यह पेड़ छाया देता है। जब खाने को कुछ नहीं होता है तब यह चारा देता है, जो लूंग कहलाता है। इसका फूल मींझर कहलाता है। इसका फल सांगरी कहलाता है, जिसकी सब्जी बनाई जाती है। यह फल सूखने पर खोखा कहलाता है जो सूखा मेवा है। इसकी लकड़ी मजबूत होती है जो किसान के लिए जलाने और फर्नीचर बनाने के काम आती है। इसकी जड़ से हल बनता है। अकाल के समय रेगिस्तान के आदमी और जानवरों का यही एक मात्र सहारा है। सन १८९९ में दुर्भिक्ष अकाल पड़ा था जिसको छपनिया अकाल कहते हैं, उस समय रेगिस्तान के लोग इस पेड़ के तनों के छिलके खाकर जिन्दा रहे थे। इस पेड़ के नीचे अनाज की पैदावार ज्यादा होती है।
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- यह घटना प्रकृति के प्रति बिश्नोई समाज की अटूट श्रद्धा का जीवंत उदाहरण है। आज भी यह बलिदान बिश्नोई समाज के इतिहास में गौरव का स्रोत है।
साहित्यिक एवं सांस्कृतिक महत्त्व
- राजस्थानी भाषा में कन्हैयालाल सेठिया की कविता ‘मींझर’ बहुत प्रसिद्द है। यह थार के रेगिस्तान में पाए जाने वाले वृक्ष खेजड़ी के सम्बन्ध में है। इस कविता में खेजड़ी की उपयोगिता और महत्व का सुन्दर चित्रण किया गया है।[1] दशहरे के दिन शमी के वृक्ष की पूजा करने की परंपरा भी है। रावण दहन के बाद घर लौटते समय शमी के पत्ते लूट कर लाने की प्रथा है जो स्वर्ण का प्रतीक मानी जाती है। इसके अनेक औषधीय गुण भी है। पांडवों द्वारा अज्ञातवास के अंतिम वर्ष में गांडीव धनुष इसी पेड़ में छुपाए जाने के उल्लेख मिलते हैं। इसी प्रकार लंका विजय से पूर्व भगवान राम द्वारा शमी के वृक्ष की पूजा का उल्लेख मिलता है। शमी या खेजड़ी के वृक्ष की लकड़ी यज्ञ की समिधा के लिए पवित्र मानी जाती है। वसन्त ऋतु में समिधा के लिए शमी की लकड़ी का प्रावधान किया गया है। इसी प्रकार वारों में शनिवार को शमी की समिधा का विशेष महत्त्व है। १९८३ में इसे राजस्थान राज्य का राज्य वृक्ष घोषित कर दिया था।
खेजड़ली बलिदान स्मारक, जोधपुर।
विश्नोई समाज के 29 नियम
- बिश्नोई समाज के 29 नियम सामूहिक जीवन को सुंदर और विकसित बनाते हैं।नियम जो जीवन का मार्गदर्शक हैं इन नियमों में:
- पेड़ों और पशुओं की रक्षा
वन्य जीवों का संरक्षण
पर्यावरण और जीवन के प्रतिकूल प्रभावों से दूरी
सात्विक और शाकाहारी भोजन का अपनाना
मनसा, वाचा, और कर्मणा पवित्रता (विचार, वचन और कर्म की पवित्रता)
ये नियम जीवन में मानवीय मूल्यों का महत्व, प्रकृति से प्रेम और व्यक्ति की आंतरिक शांति को प्रशंसित करते हैं।
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बिश्नोई समाज का योगदान
आज बिश्नोई समाज विशेष रूप से राजस्थान और हरियाणा के इलाकों में बसा हुआ है, लेकिन उनके पर्यावरण सुरक्षा के प्रयास विश्व भर में प्रशंसित हैं। विश्व जागरूकता के माध्यम से बिश्नोई लोगों का योगदान प्रकृति संरक्षण के क्षेत्र में एक मिसाल बन चुका है।
निष्कर्ष: Bishnoi Samaj एक ऐसा समुदाय है जो प्रकृति की रक्षा, जीव दया, और सामाजिक उत्तरदायित्व के संदर्भ में दुनिया को एक नई दिशा दिखाता है। गुरु जांभेश्वर जी के आदर्श और खेजड़ली के शहीदों के बलिदान को याद रखते हुए, हमें भी अपने जीवन में प्रकृति के प्रति उतनी ही श्रद्धा और प्रतिबद्धता लानी होगी।
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